Saturday, March 26, 2011

जो है बेजुबां वो शिकायत करे क्या

ग़ज़ल: 54

सुने जो न ख़ुद ही नसीहत करे क्या
जो है बेजुबां वो शिकायत करे क्या

कहीं से मुनासिब ख़बर जो न आए
वो क़िस्मत पे अपनी अक़ीदत करे क्या

बुराई के आगे सिवा ख़ामुशी के
बताए भी कोई शराफ़त करे क्या?

मनाता रहे जश्न जो अपने ग़म का
ख़ुशी आ भी जाए तो दावत करे क्या?

जवाब ईंट का दे भी पत्थर से क्योंकर
वो इक बेज़ुबाँ है बग़ावत करे क्या

जो पहरे पे रहकर ज़मीर अपना बेचे
वो मालिक की अपने हिफाज़त करे क्या

हो दुश्मन से बढ़कर किसीकी जो किस्मत
किसी से वो देवी अदावत करे क्या

देवी नागरानी

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हुस्न के अब यहाँ शरारे हैं

ग़ज़ल: ४७

आँख में जो बसे नज़ारे हैं
हम तो समझे थे सब हमारे हैं

यूं न इतराओ तुम फ़लक वालो
हुस्न के अब यहाँ शरारे हैं

पार नौकाएं तू सभी कर दे
मेरे ख़ालिक तेरे पनारे हैं

बख्श परवरदिगार तू उनको
दीन दुःख-दर्द के जो मारे हैं

बेपनाहों को दे पनाह रबा
अब ठिकाने भी बेसहारे हैं

देवी नागरानी

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मेरी खुशियों पे हक़ तुम्हारे हैं

ग़ज़ल: ४७

मेरी खुशियों पे हक़ तुम्हारे हैं
ग़म तुम्हारे सभी हमारे हैं

ऐ ग़मे-ज़िन्दगी रिहाई दे
क़ैद में दिन बहुत गुज़ारे हैं

ये भी कैसा अजीब मौसम है
ठूंठ बनकर खड़े सहारे हैं

कुछ तो ऐ ज़िन्दगी रियायत कर
क़र्ज़ कुछ तो तेरे उतारे हैं

जो भी मांगी मुराद पूरी हुईं..बर आई
टूटे जब आसमान के तारे हैं

देवी खामोशियाँ नहीं अच्छी
इससे अच्छे तेरे इशारे हैं

देवी नागरानी

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बेताबियों को हद से ज़िआदा बढ़ा गया

ग़ज़ल: ४२

बेताबियों को हद से ज़िआदा बढ़ा गया
पिछ्ला पहर था रात को कोई जगा गया

मेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब में ये कौन आ गया
दीपक मुहब्बतों के हज़ारों जला गया

कुछ इस तरह से आया अचानक वो सामने
मुझको झलक जमाल की अपने दिखा गया

इक आसमां में और भी हैं आसमां कई
मुझको हक़ीक़तों से वो वाकिफ़ करा गया

पलकें उठी तो उट्ठी ही देवी रहीं मेरी
झोंका हवा का पर्दा क्या उसका उठा गया
देवी नागरानी

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लिखी चेहरों पे भूखे-प्यासों की भाषा

ग़ज़लः ४१

लिखी चेहरों पे भूखे-प्यासों की भाषा
पढ़े तो कोई उनके नालों की भाषा

अगर इल्म होता तो हरगिज़ न कहते
है बेमानी दिल की उम्मीदों की भाषा

सुनो गौर से सच जो मैं कह रहा हूँ
नक़ाबों पे लिखी फ़रेबों की भाषा

दिए फूल-फल शुक्र उनका भी करते
समझ पाते जो पेड़ -पौधों की भाषा

कहाँ आती है कायरों को समझ में
वो चट्टान जैसी इरादों की भाषा

न ईमान की हमसे बातें करो तुम
तिजारता हुई है ज़मीरों की भाषा
देवी नागरानी

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बेचैनियाँ जगाती रही रात भर मुझे

ग़ज़लः ३९

बेचैनियाँ जगाती रही रात भर मुझे
पिछले पहर ही आई सुलाने सहर मुझे

सैलाब सौ सवालों का नम आँखों में उठा
हर इक जवाब डूबता आया नज़र मुझे

जाने क्यों उसके सामने उठती नहीं नज़र
आईना जब भी देखता है घूर कर मुझे

ऐ ज़िंदगी हटा दे ये लाया हुआ क़फन
तन का मकान लगने लगा अब ये घर मुझे

सहरा की प्यास देख के बादल उमड़ पड़ा
फिर भी लगा वो प्यास का मारा मगर मुझे

कुछ इस तरह वो जाके घटाओं में छिप गया
शर्मा रहा है देखके जैसे कमर मुझे

बिकते रहे गवाह सभी चश्मदीद उधर
गुमराह कर रही थी दलीलें इधर मुझे
देवी नागरानी

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मिल न पाई सहर मुझे तब से

ग़ज़ल: ३७

मिल न पाई सहर मुझे तब से
जब से मिलना मेरा हुआ शब से

तीरगी हो गई निडर शब से
हैं उजाले डरे-डरे तब से

हादसे सरफिरे हुए जब से
घर से निकला गया नहीं तब से

जब सुना 'बहरी हैं नहीं सुनती'
गूंगी दीवार भड़की हैं तब से

कैसी होती है प्यास की शिद्दत
पूछो प्यासे की खुश्की-ए-लब से

मुझको मिलता नहीं सुराग़ उसका
कोई मिलता है किस तरह रब से

एक पत्थर ने पूछा दूजे से ,
है लगी आग ये कहो कब से?

कुछ समझ पाई कुछ नहीं समझी
थोड़ी सी आई है समझ जब से

देवी रूठी है जब से परछाई
आइना गर्द खा रहा तब से
देवी नागरानी

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छू गई मुझको ये हवा जैसे

ग़ज़लः ३५

छू गई मुझको ये हवा जैसे
फूल के होंठ ने छुआ जैसे

उस तरह मैं कभी न जी पाई
जिंदगी ने मुझे जिया जैसे

याद हमको तेरी क्या आई है
ताज़ा हर ज़ख़्म है हुआ जैसे

जिस सहारे में पुख़्तगी ढूँढी
रेत का घर मुझे लगा जैसे

लुट गया शम्अ पे वो दीवाना
किस्सा सदियों का ये रहा जैसे

‘देवी’ दिल के हज़ार टुकड़े हैं
दिल हज़रों में बंट गया जैसे.
देवी नागरानी

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कुछ न कह कर भी सब कहा मुझसे

ग़ज़लः ३४

कुछ न कह कर भी सब कहा मुझसे
जाने क्या था उसे गिला मुझसे

ऐब मेरे गिना रहा है जो
दोस्त बनकर गले मिला मुझसे

चंद साँसों की देके मुहलत यूँ,
ज़िंदगी चाहती है क्या मुझसे

जिसने रक्खा था कै़द में मुझको
वो रिहाई क्यों चाहता मुझसे.

क्या लकीरों की कोई साज़िश है,
रख रही हैं तुझे जुदा मुझसे

शोर ख़ामोशियों का मत पूछों
कह गई अपना हर गिला मुझसे

सिलसिला राहतों का टूट गया
आप जब से हुए जुदा खफ़ा मुझसे.

मुझसे ख़ाइफ़ हुआ वो दीवाना
खुद ही जब वो हुआ जुदा मुझसे
देवी नागरानी

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पढ़ी, समझी होती दरारों की भाषा

ग़ज़ल : 31

पढ़ी, समझी होती दरारों की भाषा
समझ पाते हम फिर किनारों की भाषा

समझते नुमाइश का बाज़ार हम भी
समझ आती जो इश्तिहारों की भाषा

ढिंढोरा समझ का न यूँ पीटते हम
समझ में जो आती गवारों की भाषा

"खिज़ाएं तो आएँगी" उसने कहा था
मगर उफ़! न समझे बहारों की भाषा

न बैसाखियों की ज़रूरत ही पड़ती,
समझते जो हम तुम सहारों की भाषा

न कुछ पूछते तुम भी ख़ामोशियों से,
जो पढ़ पाते तुम राज़दारों की भाषा

तुम्हारी ख़लिश मुझको सहला रही है,
समझती है वो फूल-ख़ारों की भाषा

न घायल उन्हें करती शब्दों की आरी
समझते जो नादाँ इशारों की भाषा
देवी नागरानी

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रेत पर घर जो इक बनाया है

ग़ज़लः २८

रेत पर घर जो इक बनाया है
अपनी क़िस्मत को आज़माया है

रिश्ता दिल से रहा है जो अपना
अपना होकर भी वो पराया है

मैं सितारों को छू तो सकती हूँ
बीच में चाँद क्योंकर आया है

आज का हाल देख मुस्तक़बिल
कौन माज़ी को देख पाया है

बात जब अनसुनी रही मेरी
बात को दिल से तब लगाया है

क़त्ल उसने किया हे फिर भी क्यों
सर पे इल्ज़ाम मेरे आया है

रिश्ता वो ही निभाएगा ‘देवी’
जिसको रिश्ता समझ में आया है.
देवी नागरानी

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ज़िंदगी एक आह होती है

ग़ज़लः २७

ज़िंदगी एक आह होती है
मौत उसकी पनाह होती है

जुर्म जितने हुए हैं धरती पर
आसमाँ की निगाह होती है

इश्क में राहतो-सुकूँ ही नहीं
ज़िंदगानी तबाह होती है

पीठ पीछे बुराई मत करना
बात ऐसी गुनाह होती है

प्यास किसकी बुझी सराबों से
इक फ़रेबी निगाह होती है

निकले सूरत कोई उजाले की
रात अपनी सियाह होती है

मिट गई सारी चाहतें देवी
एक बस तेरी चाह होती है
देवी नागरानी

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आज मुझको नदी उदास लगी

ग़ज़लः २६

आज मुझको नदी उदास लगी
जाने कैसी है उसको प्यास लगी

बारिशों में नहा चुके हैं बहुत,
धूप की अब तो दिल में आस लगी

आँख पर था चढ़ा हरा चश्मा
सारी दुनिया ही सब्ज़ घास लगी

सहरा में देख कर सराबों को
और भी तिश्नगी को प्यास लगी

कुछ तो बदलाव उसमें आया था
कुछ न थी जो कभी, वो ख़ास लगी

रक्स करने लगी थी यूं रिमझिम
क्रष्ण राधा की जैसे रास लगी

हम सफ़र राह में था साथ मेरे
जो भी दूरी थी वो भी पास लगी
देवी नागरानी

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ज़िन्दगी दूर थी क़रीब लगी

ग़ज़लः २०

ज़िन्दगी दूर थी क़रीब लगी
की बसर, तो बहुत अजीब लगी

उम्र भर बोझ उठाया था जिसका
आज मुझको वही सलीब लगी

जो हँसाकर रुलाये पल भर में
दोस्ती वो मुझे रक़ीब लगी

धूप दुःख में तो छांव दे सुख में
जीस्त मेरी, मेरा नसीब लगी

जिसने जीना सिखाया है मुझको
माँ की सूरत में वो अदीब लगी

दूर जीवन से रहती हूँ जितना
मौत के उतनी हूँ करीब लगी

देवी नागरानी

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दौरे-खिजां आ जाता है

ग़ज़लः19

बंद कर दें वार करना अब ज़बाँ की धार से
दोस्ती की आओ सीखें हम अदा गुल-ख़ार से

अपनी मर्ज़ी से कहाँ टूटा है कोई आज तक
वो हुआ लाचार अपनी बेबसी की मार से

नज़्रे-आतिश बस्तियों में यूँ अंधेरा छा गया
साफ़ आएगा नज़र कुछ धुंध के उस पार से

करके मन की हर तरह हमने बिताई ज़िंदगी
याद कर लें अब अमल का पाठ गीता-सार से

बेख़बर खुद से सभी हैं, कौन किसकी ले खबर
सुर्ख़ियों की शोखियां झाँकें हैं हर अख़बार से

क्या है लेना, क्या है देना, दर्द से 'देवी' भला
फ़ायदा भी कुछ नहीं है दर्द के इज़हार से

देवी नागरानी

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दीदार की खुशबू

ग़ज़ल: 18

कभी महसूस की गुलशन में तुमने ख़ार की खुशबू
कहीं कागज़ के फूलों से है आती प्यार की खुशबू

कहा किसने लिखे सब कागजों पर कुछ नहीं मिलता
कहानी पढने से आये सदा किरदार की खुशबू

कभी इनकार करता दिल, कभी इकरार करता दिल
अजब उस प्यार से आती है अब इज़हार की खुशबू

दिखावा ही दिखावा है, छलकता बातों से उसकी
करे जो बात वो दिल से, मिले गुफ़्तार की खुशबू

कभी ऐसा भी होता है पराये अपने लगते हैं
मिली है एक बेगाने में जिगरी यार की खु़शबू

महकती रात की उस तीरगी में जागती देवी
कि आये चाँद से चेहरे से कब दीदार की खुशबू

ये सावन की घटा घनघोर छाई है बरसने को
इधर मदहोश करती आई है मल्हार की खुशबू

ज़रा सी बात दिल-दिल से कभी तोड़े, कभी जोड़े
अगर दरकार है दिल को तो बस सहकार की खुशबू

यहाँ परदेस में हूँ मैं ओर मेरा दिल वतन में है
मेरी साँसों से आती है वतन के प्यार की ख़ुशबू

बसी देवी है जिसकी छवि, मनोहर मेरी आंखों में
कभी फैलाये आकर सामने श्रंगार की खुशबू
देवी नागरानी

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Friday, March 25, 2011

बंद कर दें वार करना अब ज़बाँ की धार से

ग़ज़लः ९

बंद कर दें वार करना अब ज़बाँ की धार से
दोस्ती की आओ सीखें हम अदा गुल-ख़ार से

अपनी मर्ज़ी से कहाँ टूटा है कोई आज तक
वो हुआ लाचार अपनी बेबसी की मार से

नज़्रे-आतिश बस्तियों में यूँ अंधेरा छा गया
साफ़ आएगा नज़र कुछ धुंध के उस पार से

करके मन की हर तरह हमने बिताई ज़िंदगी
याद कर लें अब अमल का पाठ गीता-सार से

बेख़बर खुद से सभी हैं, कौन किसकी ले खबर
सुर्ख़ियों की शोखियां झाँकें हैं हर अख़बार से

क्या है लेना, क्या है देना, दर्द से 'देवी' भला
फ़ायदा भी कुछ नहीं है दर्द के इज़हार से
देवी नागरानी

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गुदगुदाती है मुझको हंसाती ग़ज़ल

ग़ज़लः ८

दूर दिल से मेरा ग़म भगाती ग़ज़ल
गुदगुदाती है मुझको हंसाती ग़ज़ल

जुगनुओं से भी उसको मिली रोशनी
तीरगी में रही झिलमिलाती ग़ज़ल

धूप में, छांव में, बारिशों में कभी
तो कभी चांदनी में नहाती ग़ज़ल

कैसी ख़ुश्बू है ये उसकी गुफ़्तार में
रंगों-बू को चमन की लजाती ग़ज़ल

जब भी खाने को दौड़ी है तन्हाइयाँ
मेरी इमदाद को दौड़ी आती ग़ज़ल

जब भी तन्हाइयों की घुटन बढ़ गई
शोर ख़ामोशियों में मचाती ग़ज़ल

उसके विपरीत लिखकर तो देखो ज़रा
कैसे फिर देखना तिलमिलाती ग़ज़ल.
या
उसके विपरीत लोगों ने लिक्खा बहुत
शान से आगे बढ़ती ही जाती ग़ज़ल

दोनों कागज़, कलम कैसे चुप हैं हुए
सोच को मेरी जब थपथपाती ग़ज़ल॰॰

पास उसके न देवी कभी जाना तुम
वो जो छूने से है कसमसाती ग़ज़ल
देवी नागरानी

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Friday, March 11, 2011

सुनते हैं कहाँ गौर से हम प्यारों की बातें

ग़ज़लः 6

सुनते हैं कहाँ गौर से हम प्यारों की बातें
खुद से ही मिले जब भी की लाचारों की बातें

जाते हैं अयादत को उन्हें साथ लिए जो
खामोश वे गुल सुनते हैं बीमारों की बातें

वो बोल उठी जिनको तराशा किये शिल्पी
उनसे ही सुनी फन की व फनकारों की बातें

नीलाम जो अपनी ही खताओं से हुए हैं
उनसे न करो भूल के लाचारों की बातें

रोती हैं, सिसकती हैं गिरा के जो सरों को
सुन पाए कोई गौर से तलवारों की बातें

हों साफ़ जो आईने उठे हाथ दिखें फिर
करती हैं दुआएं भी यूँ तासीरों की बातें

लिखते हैं बही - खाते जो सच , झूठ के देवी
छेड़ो न कभी उनसे सदाचारों की बातें

देवी नागरानी

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शोर दिल में मचा नहीं होता

ग़ज़लः 5

शोर दिल में मचा नहीं होता
गर उसे कुछ हुआ नहीं होता
काश! वो भी कभी बदल जाते
सोच में फासला नहीं होता
कुछ कशिश है ज़मीन में वर्ना
आसमाँ यूँ झुका नहीं होता
झूठ की बे-सिबातियों की क़सम
सच के आगे खड़ा नहीं होता
अपना नुक्सान यूँ न करता वो
तैश में आ गया नहीं होता
नज़रे-आतिश न होती बस्ती यूँ
गर मेरा दिल जला नहीं होता
दर्द 'देवी' का जानता कैसे
ग़म ने उसको छुआ नहीं होता
देवी नागरानी

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Sunday, March 06, 2011

वो ही मिटा रहा है नामो-निशाँ हमारा

ग़ज़लः४

वो ही मिटा रहा है नामो-निशाँ हमारा
जो आज तक रहा था जाने-जहाँ हमारा

दुशमन से जा मिला है अब बागबाँ हमारा
सैयाद बन गया है लो राज़दाँ हमारा

ज़ालिम की ज़ुल्म का भी किससे गिला करें हम
कोई तो एक आकर सुनता बयाँ हमारा

हर बार क्यों नज़र है बर्क़े-तपाँ की उसपर
हर बार है निशाना क्यों आशियाँ हमारा

दुश्मन का भी भरोसा जिसने कभी न तोड़ा
बस उस यकीं पे चलता है कारवाँ हमारा

बहरों की महफिलों में हम चीख़ कर करें क्या
चिल्लाना-चीख़ना सब है रायगाँ हमारा

परकैंच वो परिंदे हसरत से कह रहे हैं
देवी नहीं रहा अब ये आसमां हमारा
देवी नागरानी

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3.हैवानियत के सामने इन्सानियत झुके

ग़ज़ल:3

हैवानियत के सामने इन्सानियत झुके
सर शर्म से वहीं जो झुका दें तो ठीक है

है सूनी-सूनी सोच, कंवारी भी है अभी
शब्दों से माँग उसकी सज़ा दें तो ठीक है

किस काम का उजाला जो बीनाई छीन ले
पलकों का उसपे परदा गिरा दें तो ठीक है

अपना ही चेहरा देख के होता है खौफ़-सा
टूटा वो आईना ही हटा दें तो ठीक है

सौदा हुआ तो क्या हुआ दो कौड़ियों के दाम
सस्ता न इतना ख़ुद को बना दें तो ठीक है

नीदों के इंतज़ार में रातें गुज़र गई
आँखों में सोए ख़्वाब जगा दें तो ठीक है

क्या खुद ही ठूंस ठूंस के खाते हैं उम्र भर
भूखों को पेट भरके खिला दें तो ठीक है

वो आशना जो रहता है मुझसे ही बेख़बर,
उस नामुराद को ही भुला दें तो ठीक है
देवी नागरानी

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2.फूल के होंठ से मुस्कान चुराते देखा

ग़ज़ल:2

जिसको पतझड़ में सदा आँसू बहाते देखा
मौसमे-गुल में उन्हें हंसते-हंसाते देखा

एक गुलचीं का जो दिल आया तो उसको हमने
फूल के होंठ से मुस्कान चुराते देखा

जब भी नीलाम सरे-आम हुई हैं कलियाँ
बागबाँ को भी वहाँ बोली लगाते देखा

इक हवस के ही सबब होता चला आया सब
नोच कर पर भी परिंदों को उड़ाते देखा

औरों के घर में लगी आग बुझाते थे जो
उनको अपनों के घरों को भी जलाते देखा

बारिशों में वो नहा कर भी रहा प्यासा था
रेत ही रेत में सहरा को नहाते देखा

जलने को बाकी कहाँ कुछ भी बचा था देवी
बर्क को फिर भी वहाँ आग लगाते देखा
देवी नागरानी

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1.देवाँगन: वतन की याद आती है

" देवाँगन" मेरे मन का गुलशन है जहां मेंने मेरे जीवन के तमाम मुरझाए, महकते सुमन यहाँ संजो कर रक्खे हैं. इन्हीं की बदौलत आज मैं अपने धड़कनों में एक ख़ूश्बू टहलती हुई पाती हूं, जिसके साथ सफ़र करते करते मैं आज यहां पर हूँ, इसी गुलशन से मेरी सांसें महक रही है.
देवी नागरानी

ग़ज़लः1

जुदाई से नयन है नम, वतन की याद आती है
बहे काजल न क्यों हरदम, वतन की याद आती है

समय बीता बहुत लंबा हमें परदेस में रहते
न उसको भूल पाए हम, वतन की याद आती है

तड़पते हैं, सिसकते हैं, जिगर के ज़ख़्म सीते हैं
ज़ियादा तो कभी कुछ कम, वतन की याद आती है

चढ़ा है इतना गहरा रंग कुछ उसकी मुहब्बत का
हुए गुलज़ार जैसे हम, वतन की याद आती है

यहाँ परदेस में भी फ़िक्र रहती है हमें उसकी
हुए हैं ग़म से हम बेदम, वतन की याद आती है

हमारा दिल तो होता है बहुत मिलने मिलाने का
रुलाते फ़ासले हमदम, वतन की याद आती है

वही है देश इक ‘देवी’ अहिंसा धर्म है जिसका
लुटाता प्यार की शबनम, वतन की याद आती है.
देवी नागरानी

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