Saturday, March 26, 2011

दीदार की खुशबू

ग़ज़ल: 18

कभी महसूस की गुलशन में तुमने ख़ार की खुशबू
कहीं कागज़ के फूलों से है आती प्यार की खुशबू

कहा किसने लिखे सब कागजों पर कुछ नहीं मिलता
कहानी पढने से आये सदा किरदार की खुशबू

कभी इनकार करता दिल, कभी इकरार करता दिल
अजब उस प्यार से आती है अब इज़हार की खुशबू

दिखावा ही दिखावा है, छलकता बातों से उसकी
करे जो बात वो दिल से, मिले गुफ़्तार की खुशबू

कभी ऐसा भी होता है पराये अपने लगते हैं
मिली है एक बेगाने में जिगरी यार की खु़शबू

महकती रात की उस तीरगी में जागती देवी
कि आये चाँद से चेहरे से कब दीदार की खुशबू

ये सावन की घटा घनघोर छाई है बरसने को
इधर मदहोश करती आई है मल्हार की खुशबू

ज़रा सी बात दिल-दिल से कभी तोड़े, कभी जोड़े
अगर दरकार है दिल को तो बस सहकार की खुशबू

यहाँ परदेस में हूँ मैं ओर मेरा दिल वतन में है
मेरी साँसों से आती है वतन के प्यार की ख़ुशबू

बसी देवी है जिसकी छवि, मनोहर मेरी आंखों में
कभी फैलाये आकर सामने श्रंगार की खुशबू
देवी नागरानी

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