2.फूल के होंठ से मुस्कान चुराते देखा
ग़ज़ल:2जिसको पतझड़ में सदा आँसू बहाते देखा
मौसमे-गुल में उन्हें हंसते-हंसाते देखा
एक गुलचीं का जो दिल आया तो उसको हमने
फूल के होंठ से मुस्कान चुराते देखा
जब भी नीलाम सरे-आम हुई हैं कलियाँ
बागबाँ को भी वहाँ बोली लगाते देखा
इक हवस के ही सबब होता चला आया सब
नोच कर पर भी परिंदों को उड़ाते देखा
औरों के घर में लगी आग बुझाते थे जो
उनको अपनों के घरों को भी जलाते देखा
बारिशों में वो नहा कर भी रहा प्यासा था
रेत ही रेत में सहरा को नहाते देखा
जलने को बाकी कहाँ कुछ भी बचा था देवी
बर्क को फिर भी वहाँ आग लगाते देखा
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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