Sunday, November 26, 2006

मुख़्तसर, मुख़्तसर, मुख़्तसर


८०. गज़ल

बददुआओं का है ये असर
हर दुआ हो गई बेअसर.१

ज़ख्म अब तक हरे है मिरे
सूख कर रह गए क्यों शजर?२

यूं न उलझो सभी से यहां
फितरती शहर का है बशर.३

राह तेरी मेरी एक थी
क्यों न बन पाया तू हमसफर.४
वो मनाने तो आया मुझे
रूठ कर खुद गया वो मगर.५

चाहती हूं मैं देवी तुझे
सच कहूं किस कदर टूटकर.६
॰॰
८० गज़ल
मैं खुशी से रही बेखबर
गम के आँगन में था मेरा घर.१
रक्स करती थी खुशियां अभी
ग़म उन्हें ले गया लूटकर.२
आशना ढूंढते ढूंढते
खोया मैंने तो अपना ही घर.३
गुफ्तगू जिनसे होती रही
उनको देखा नहीं आँख भर.४
दिल की चाहत को चोंटें लगी
कैसे बिखरी है वो टूटकर.५
कैसे परवाज़ देवी करे
नोचे सय्याद ने उसके पर.६
॰॰
८१. गज़ल

मुख़्तसर, मुख़्तसर, मुख़्तसर,
रह गई जिंदगी अब मगर.

ज़ाइका तो लिया उम्र भर
समझे अम्रत मगर था जहर.

उम्र सारी थे साहिल पे हम
प्यास लेकर के लौटे है पर.

बनके बेखौफ चलते हो क्यों?
मौत तेरी सदा हम सफर.

अपने दामन में खुशियां तो थीं
कुछ रुकी, फिर चली रूठकर.

गँगा जाकर नहाया बहुत
मैल औरों की लाये थे घर.

ना समझ तुम न देवी बनो
अब है जाना तू घर ख़ाली कर.


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2 टिप्पणी:

At 1:57 AM, Blogger renu ahuja उवाच...

waah kyaa khoob sher hai ye
गँगा जाकर नहाया बहुत
मैल औरों की लाये थे घर
devi jee, bahut khoobsurat andazey bayaan hai, bas yoo hi likhtee rahen yahi duaa hai.
-regards
renu ahuja

 
At 11:50 AM, Blogger Devi Nangrani उवाच...

Renuji

Der ke mafi chahti hoon. aapke do shabd houslon ko bakarar rakhne ke liye bahut hai.

wishes
Devi

 

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