Saturday, November 18, 2006

खाहिशों से सजा के घर रक्खा


फिर खुला मैंने दिल का दर रक्खा
खाहिशों से सजा के घर रक्खा.१

मैं निगहबाँ बनी थी औरों की
अपने घर को ही दाव पर रक्खा.२

मँजिलों की तलाश में भटकी
साथ फिर भी न राह पर रक्खा.३

तीर पहुंचा मुकाम पर अपने
यूं निशनाने पे अपना सर रक्खा.४

कुछ कहा और कुछ न कह पाए
जब्त खुद पर उम्र भर रक्खा.५

सोचना छोड़ अब तो ऐ देवी
फैसला जब अवाम पर रक्खा.६

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2 टिप्पणी:

At 11:01 PM, Blogger कैलाश चन्द्र दुबे उवाच...

बहुत अच्छा, आशा है- आगे भी गज़ले पढने को मिलती रहेगी।

 
At 11:47 AM, Blogger Devi Nangrani उवाच...

Thanks Dubey ji
meri koshishein kamyaab ho yahi dua karein.

Devi

 

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