इक प्यास में हमेशा
महफिल में शमा क्यों कर अब तक मचल रही हैमधिम सी रौशनी में वो खुद ही जल रही है॥
इक प्यास में हमेशा रातें सरक रही है
तुझे देखने को आँखे अब तक तरस रही है॥
ऐसे न डूबते हम गर हाथ थाम लेते
मौजों की गोद में अब कश्ती सँभल रही है॥
था मर्ज वो पुराना जिसकी न थी दवा भी
तेरी निगाह शफा का अब काम कर रही है॥
अनजान राह पर यूँ, चलना न था मुनासिब
फिर भी चुनौती बनके हर साँस चल रही है़॥
यूँ तो किया मुतासिर मुझे जिँदगी ने देवी
क्यों ठोकरों ने जाने कर दर बदर रही है॥
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1 टिप्पणी:
बहुत अच्छी कविताएँ हैं...... बधाई
डॉ॰ व्योम
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