3.हैवानियत के सामने इन्सानियत झुके
ग़ज़ल:3हैवानियत के सामने इन्सानियत झुके
सर शर्म से वहीं जो झुका दें तो ठीक है
है सूनी-सूनी सोच, कंवारी भी है अभी
शब्दों से माँग उसकी सज़ा दें तो ठीक है
किस काम का उजाला जो बीनाई छीन ले
पलकों का उसपे परदा गिरा दें तो ठीक है
अपना ही चेहरा देख के होता है खौफ़-सा
टूटा वो आईना ही हटा दें तो ठीक है
सौदा हुआ तो क्या हुआ दो कौड़ियों के दाम
सस्ता न इतना ख़ुद को बना दें तो ठीक है
नीदों के इंतज़ार में रातें गुज़र गई
आँखों में सोए ख़्वाब जगा दें तो ठीक है
क्या खुद ही ठूंस ठूंस के खाते हैं उम्र भर
भूखों को पेट भरके खिला दें तो ठीक है
वो आशना जो रहता है मुझसे ही बेख़बर,
उस नामुराद को ही भुला दें तो ठीक है
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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