रेत पर घर जो इक बनाया है
ग़ज़लः २८रेत पर घर जो इक बनाया है
अपनी क़िस्मत को आज़माया है
रिश्ता दिल से रहा है जो अपना
अपना होकर भी वो पराया है
मैं सितारों को छू तो सकती हूँ
बीच में चाँद क्योंकर आया है
आज का हाल देख मुस्तक़बिल
कौन माज़ी को देख पाया है
बात जब अनसुनी रही मेरी
बात को दिल से तब लगाया है
क़त्ल उसने किया हे फिर भी क्यों
सर पे इल्ज़ाम मेरे आया है
रिश्ता वो ही निभाएगा ‘देवी’
जिसको रिश्ता समझ में आया है.
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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