ज़िन्दगी दूर थी क़रीब लगी
ग़ज़लः २०ज़िन्दगी दूर थी क़रीब लगी
की बसर, तो बहुत अजीब लगी
उम्र भर बोझ उठाया था जिसका
आज मुझको वही सलीब लगी
जो हँसाकर रुलाये पल भर में
दोस्ती वो मुझे रक़ीब लगी
धूप दुःख में तो छांव दे सुख में
जीस्त मेरी, मेरा नसीब लगी
जिसने जीना सिखाया है मुझको
माँ की सूरत में वो अदीब लगी
दूर जीवन से रहती हूँ जितना
मौत के उतनी हूँ करीब लगी
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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