Saturday, March 26, 2011

ज़िंदगी एक आह होती है

ग़ज़लः २७

ज़िंदगी एक आह होती है
मौत उसकी पनाह होती है

जुर्म जितने हुए हैं धरती पर
आसमाँ की निगाह होती है

इश्क में राहतो-सुकूँ ही नहीं
ज़िंदगानी तबाह होती है

पीठ पीछे बुराई मत करना
बात ऐसी गुनाह होती है

प्यास किसकी बुझी सराबों से
इक फ़रेबी निगाह होती है

निकले सूरत कोई उजाले की
रात अपनी सियाह होती है

मिट गई सारी चाहतें देवी
एक बस तेरी चाह होती है
देवी नागरानी

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