पढ़ी, समझी होती दरारों की भाषा
ग़ज़ल : 31पढ़ी, समझी होती दरारों की भाषा
समझ पाते हम फिर किनारों की भाषा
समझते नुमाइश का बाज़ार हम भी
समझ आती जो इश्तिहारों की भाषा
ढिंढोरा समझ का न यूँ पीटते हम
समझ में जो आती गवारों की भाषा
"खिज़ाएं तो आएँगी" उसने कहा था
मगर उफ़! न समझे बहारों की भाषा
न बैसाखियों की ज़रूरत ही पड़ती,
समझते जो हम तुम सहारों की भाषा
न कुछ पूछते तुम भी ख़ामोशियों से,
जो पढ़ पाते तुम राज़दारों की भाषा
तुम्हारी ख़लिश मुझको सहला रही है,
समझती है वो फूल-ख़ारों की भाषा
न घायल उन्हें करती शब्दों की आरी
समझते जो नादाँ इशारों की भाषा
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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