Saturday, March 26, 2011

पढ़ी, समझी होती दरारों की भाषा

ग़ज़ल : 31

पढ़ी, समझी होती दरारों की भाषा
समझ पाते हम फिर किनारों की भाषा

समझते नुमाइश का बाज़ार हम भी
समझ आती जो इश्तिहारों की भाषा

ढिंढोरा समझ का न यूँ पीटते हम
समझ में जो आती गवारों की भाषा

"खिज़ाएं तो आएँगी" उसने कहा था
मगर उफ़! न समझे बहारों की भाषा

न बैसाखियों की ज़रूरत ही पड़ती,
समझते जो हम तुम सहारों की भाषा

न कुछ पूछते तुम भी ख़ामोशियों से,
जो पढ़ पाते तुम राज़दारों की भाषा

तुम्हारी ख़लिश मुझको सहला रही है,
समझती है वो फूल-ख़ारों की भाषा

न घायल उन्हें करती शब्दों की आरी
समझते जो नादाँ इशारों की भाषा
देवी नागरानी

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