मिल न पाई सहर मुझे तब से
ग़ज़ल: ३७मिल न पाई सहर मुझे तब से
जब से मिलना मेरा हुआ शब से
तीरगी हो गई निडर शब से
हैं उजाले डरे-डरे तब से
हादसे सरफिरे हुए जब से
घर से निकला गया नहीं तब से
जब सुना 'बहरी हैं नहीं सुनती'
गूंगी दीवार भड़की हैं तब से
कैसी होती है प्यास की शिद्दत
पूछो प्यासे की खुश्की-ए-लब से
मुझको मिलता नहीं सुराग़ उसका
कोई मिलता है किस तरह रब से
एक पत्थर ने पूछा दूजे से ,
है लगी आग ये कहो कब से?
कुछ समझ पाई कुछ नहीं समझी
थोड़ी सी आई है समझ जब से
देवी रूठी है जब से परछाई
आइना गर्द खा रहा तब से
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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