मेरी खुशियों पे हक़ तुम्हारे हैं
ग़ज़ल: ४७मेरी खुशियों पे हक़ तुम्हारे हैं
ग़म तुम्हारे सभी हमारे हैं
ऐ ग़मे-ज़िन्दगी रिहाई दे
क़ैद में दिन बहुत गुज़ारे हैं
ये भी कैसा अजीब मौसम है
ठूंठ बनकर खड़े सहारे हैं
कुछ तो ऐ ज़िन्दगी रियायत कर
क़र्ज़ कुछ तो तेरे उतारे हैं
जो भी मांगी मुराद पूरी हुईं..बर आई
टूटे जब आसमान के तारे हैं
देवी खामोशियाँ नहीं अच्छी
इससे अच्छे तेरे इशारे हैं
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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