Saturday, March 26, 2011

बेचैनियाँ जगाती रही रात भर मुझे

ग़ज़लः ३९

बेचैनियाँ जगाती रही रात भर मुझे
पिछले पहर ही आई सुलाने सहर मुझे

सैलाब सौ सवालों का नम आँखों में उठा
हर इक जवाब डूबता आया नज़र मुझे

जाने क्यों उसके सामने उठती नहीं नज़र
आईना जब भी देखता है घूर कर मुझे

ऐ ज़िंदगी हटा दे ये लाया हुआ क़फन
तन का मकान लगने लगा अब ये घर मुझे

सहरा की प्यास देख के बादल उमड़ पड़ा
फिर भी लगा वो प्यास का मारा मगर मुझे

कुछ इस तरह वो जाके घटाओं में छिप गया
शर्मा रहा है देखके जैसे कमर मुझे

बिकते रहे गवाह सभी चश्मदीद उधर
गुमराह कर रही थी दलीलें इधर मुझे
देवी नागरानी

Labels:

0 टिप्पणी:

Post a Comment

<< Home