बेचैनियाँ जगाती रही रात भर मुझे
ग़ज़लः ३९बेचैनियाँ जगाती रही रात भर मुझे
पिछले पहर ही आई सुलाने सहर मुझे
सैलाब सौ सवालों का नम आँखों में उठा
हर इक जवाब डूबता आया नज़र मुझे
जाने क्यों उसके सामने उठती नहीं नज़र
आईना जब भी देखता है घूर कर मुझे
ऐ ज़िंदगी हटा दे ये लाया हुआ क़फन
तन का मकान लगने लगा अब ये घर मुझे
सहरा की प्यास देख के बादल उमड़ पड़ा
फिर भी लगा वो प्यास का मारा मगर मुझे
कुछ इस तरह वो जाके घटाओं में छिप गया
शर्मा रहा है देखके जैसे कमर मुझे
बिकते रहे गवाह सभी चश्मदीद उधर
गुमराह कर रही थी दलीलें इधर मुझे
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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