Saturday, March 26, 2011

हुस्न के अब यहाँ शरारे हैं

ग़ज़ल: ४७

आँख में जो बसे नज़ारे हैं
हम तो समझे थे सब हमारे हैं

यूं न इतराओ तुम फ़लक वालो
हुस्न के अब यहाँ शरारे हैं

पार नौकाएं तू सभी कर दे
मेरे ख़ालिक तेरे पनारे हैं

बख्श परवरदिगार तू उनको
दीन दुःख-दर्द के जो मारे हैं

बेपनाहों को दे पनाह रबा
अब ठिकाने भी बेसहारे हैं

देवी नागरानी

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