हुस्न के अब यहाँ शरारे हैं
ग़ज़ल: ४७आँख में जो बसे नज़ारे हैं
हम तो समझे थे सब हमारे हैं
यूं न इतराओ तुम फ़लक वालो
हुस्न के अब यहाँ शरारे हैं
पार नौकाएं तू सभी कर दे
मेरे ख़ालिक तेरे पनारे हैं
बख्श परवरदिगार तू उनको
दीन दुःख-दर्द के जो मारे हैं
बेपनाहों को दे पनाह रबा
अब ठिकाने भी बेसहारे हैं
देवी नागरानी
Labels: GHAZAL
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