Friday, April 21, 2006

पत्थर के वो मकान भी

पत्थर के वो मकान भी क्या घर बने कभी
जो दे चराग रौशनी, वो है बुझे अभी॥

शीशे महल के लोग वो पत्थर के है बने
दुख दर्द देख और का रोते न थे कभी॥

माना के अश्क बन सके मोती कभी कभी
अक्सर मिट्टी से मिलके वो मिटी बने कभी॥

अपना वजूद ढूँढ लो अपने जमीर में
पहचान पालो आज ही कल हो न ये कभी॥

मेरी बँदगी में ऐ रबा बस एक तू ही तूले
ना न इम्तिहान ऐ मालिक मेरे कभी॥

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